टिकट न मिलने पर जग जाहिर हो रही नेताओं की नाराजगी,भीतरघात से हो सकता है नुकसान

कोई अपना क़ातिल सा लगे है……….?????
टिकट न मिलने पर जग जाहिर हो रही नेताओं की नाराजगी,भीतरघात से हो सकता है नुकसान
शीर्ष नेतृत्व की नीतियों से गिर रही राजनीति की साख
टिकट न मिलने पर भावी प्रत्याशियों की खामोशी किसी तूफान का संकेत दे रही है टिकट पाने के प्रयास में लगे नेताओं की आस एक झटके में ही टूट जाने से उनकी नाराजगी जगजाहिर हो रही है। विश्वासघात का घाव खाने वालों को अब अपनी ताकत का अहसास कराना भी एक चुनोती बन गया।
(काज़ी अमजद अली)
कुछ न की थी कड़ी मेहनत तो कुछ को था ताकत व रसूख का गुमान, लेकिन सियासत फिर सियासत होती है।स्वार्थ और सियासत को भूलकर कर भावनाओं और जज़्बात में नि:स्वार्थ होकर राजीनीतिक दलों का पाँच साल तक जनता के बीच प्रचार कर उन्हें जीवित रखने वालों को उनकी मेहनत का पारितोषिक देने का वादा किया गया था। वक़्त आते आते ये वादा एक प्रतिस्पर्धा में तब्दील होता गया प्रत्येक एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लग गया । रास्ता एक मंज़िल भी एक ,सब कुछ दाँव पर लगवाकर झटके से झटक देना तो अब कोई सियासत के आकाओं से सीखे उन्ही के साथ नाइंसाफी कर डाली जो ईमानदारी की दलीलें देने ना थकते थे ।आखरी पायदान से फिसलकर चोट खाने वालों को ज़ख्म कितने गहरे मिले हैं इसका अंदाज़ा कोई भी दर्दमन्द लगा सकता है।क्या यही आदर्श और प्रेरणादायक राजनीति है। आज सवाल फिर शीर्ष नेतृत्व पर खड़े हो गये हैं। अनेक को निमन्त्रण देकर एक को थाली परोसने की परम्परा हमें विरासत में नही मिली है राजनीति में ये वायरस अभी नया ही आया है। आज कोई बड़ा राजनीतिक दल इस संक्रमण से अछूता नही है। बूथ अध्यक्ष से लेकर मण्डल अध्यक्ष, ब्लॉक् अध्यक्ष, सेक्टर प्रभारी,जिलाध्यक्ष अनेक प्रकार के मोर्चे,प्रकोष्ठ आदि आदि के पदाधिकारियों की राय,उनका मशविरा कोई मायने नही रखता।आज इसके साथ तो कल दूसरे के साथ गठबंधन,सारी शर्तें टिकटार्थियों के लिये आकाओं के लिये नही है कोई बन्धन…
राजनीतिक दलों की यही नीतियाँ आगे भी जारी रहने वाली हैं।शीर्ष नेतृत्व के लिये पलक बिछाने वालों को भी अब आत्मचिन्तन करना होगा । प्रतिस्पर्धा या सामंजस्यता जो भी हो किन्तु राजनीति सामाजिक मिशन और उसूलों से न भटके इसके लिये विचार मन्थन अब अनिवार्य हो गया है ।