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“ऐ सुनो, तुम्हारी आँखों में बैठे उस नूर से कुछ कहना है।”

“ऐ सुनो, तुम्हारी आँखों में बैठे उस नूर से कुछ कहना है।”
“क्या कहना है?मुझसे कहो न!”

“नहीं मेरे दिल की बात तुम न समझोगी…।” एक ठंडी सी आह उसके दिल से निकली।

“क्यों नहीं समझूंगी!तुम मुझे नासमझ समझते हो!” आँखों को गोल फैला कर वह बोली।

“तुम हो ही नासमझ… एक दम बच्ची।”

“ऐइ… मैं तुम्हारी चालाकी समझ रही हूं… मेरी आँखों में झांककर मुझे सम्मोहित करना चाहते हो!! ”

“तुम्हारे सम्मोहन में तो मैं हूँ पगली…।” कुछ बुदबुदाते हुए वह बोला।

“कुछ कहा तुमनें!अभी कुछ कह रहे थे न!” आँखों की गोलाई कुछ सिकुड़ सी गई और माथे पर दो लकीरें आकर बैठ गई।

“मैं तो कबसे खामोश हूँ बस तुम्हें गुनगुनाते सुन

रहा था…. तुम मेरी कविता गुनगुना रही थीं न!”

“हुंउ… किसने कहा कि यह कविता तुम्हारी है!” ठुनकते हुए उसकी आवाज़ बिखर गई।
आवाज़ के साथ फैली एक रूठी सी खुशबू थी।

“लिखी थी मैंने थी ….।” वह मनाने की गरज से कुछ ज्यादा ही नर्म था।

“लिखी थी तो! क्या मुझे मालूम नहीं कि तुम्हारी हर कविता में मैं होती हूँ जब मैं उसमें शामिल हूँ तो वह तुम्हारी कैसे हो गई!”

“जादूगरनी हो तुम…” कुछ फिसल सा गया वो और जाकर उसके बालों में उलझ गया।

“कभी नासमझ कहते हो कभी जादूगरनी!शायद तुम खुद ही अपने ही अंदर उलझे बैठे हो…।”

“मुझे यह उलझन पसंद है।”

“उलझन अच्छी नहीं होती बुद्दु! जिन्दगी फंस जाती है।” दार्शनिक अंदाज में वह बोली।

“वही तो चाहता हूँ मैं…. फंस जाना।” हल्की बुदबुदाहट उसके होंठों से निकल कांधे पर बैठ गई।

“ये लो…झुक गए न! कह रही हूँ निकल जाओ उलझन से…लेकिन नहीं।देखो तुम्हारे कंधे! कुछ जख्मी लग रहे हैं।” उसकी आँखों में बैठा नूर अपने ही पानी में डूबने लगा।

अपनी हथेलियों की अंजूरी बना वह बहते पानी को समेटने लगा।

“जख्म नहीं है रे….।यह तो मेरी जिन्दगी के उन पैरों के निशान हैं जो मेरे कंधे पर रखें थे।लेकिन तुम अपनी आँखों के पानी को रोक लो….वरना मैं अपनी बात न कह पाऊंगा।”

“क्यों डरते हो बहाव से!” वह हँस कर बोली।

“गुलमोहर देखें हैं कभी?” उसकी हँसी को नजरअंदाज कर वह अपनी रौ में बोला।

“हाँ देखें हैं न…।” वह कुछ चिढ़ते हुए बोली।

“नहीं… तुमनें नहीं देखे…।”

“तुम न कुछ भी बोलते हो! मेरे आंगन खिलते हैं न गुलमोहर….।”

“तब भी तुमने नहीं देखे।”

“आँखें हैं मेरी… देखो गौर से।”

“कभी प्यार खिलते देखा है तुमने!उसकी शाख पर खिले हर फूल में बेहिसाब मोहब्बत खिलती है…।कहीं मैं भी वैसा ही गुलमोहर हूँ।”

“जाने क्यों लगता है कि तुम बहुत घंमडी हो….डर लगता है कभी कभी तुम्हारी बातों से। ” माथे की लकीरें कुछ और गहरी हो गई।

वह चुप रहा और अपने दोनों हाथों को पैंट की जेब में डाल वह आगे चल पड़ा।

वह कुछ पीछे रह गई।गुस्सा उसकी नाक से उतर गालों पर बैठ गया।अनमनी हो वह उल्टी दिशा में चलने लगी लेकिन कुछ दूर जाकर कर रूक गई।

अब बुदबुदाहट उसके होंठो पर थी और आँखों का नूर! वो अब अपने ही पानी में लगभग डूब गया था।
“हुंउ… जैसे सब जानता हो तुम….नालायक से….जानते होते तो मेरे करीब खड़े होते।”

शब्द निकले तो थे लेकिन बेआवाज़ थे ….फिर भी शायद उसके दिल ने सुन लिए।पैर ठिठक कर रूक गए और वापस खींचने लगे।

पल भी न बीता और वह उसके नजदीक था।

“क्यों आए अब?”

“तुम्हारी आँखों के नूर से चंद बातें करने… इजाजत दोगी!”

“नहीं…. पहले मुझे देखनी हैं शाख पर खिले हर गुलमोहर में मोहब्बत।”

दिव्या शर्मा
गुडगांव हरियाणा

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