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स्मारकों की राजनीति…

टॉकिंग पॉइंट्स

नरविजय यादव

सार्वजनिक स्थलों का नामकरण योग्यता के आधार पर होना चाहिए, न कि राजनीतिक विरासत के लिए। अब वक्त आ गया है कि भारत में राष्ट्रीय संपत्तियों का राजनीतिकरण समाप्त किया जाए।

 

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समाधि स्थलों की जरूरत ही क्या है? लेकिन, पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के निधन के बाद स्मारक को लेकर उनकी ही पार्टी ने अनावश्यक विवाद खड़ा कर दिया।एक दूरदर्शी अर्थशास्त्री और भारत के आर्थिक उदारीकरण के शिल्पकार, डॉ सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में देश के वित्तीय परिदृश्य को बदल दिया था। एक अर्थशास्त्री के रूप में उनकी विरासत को यादगार और प्रेरणादायक बनाने के लिए कायदे में तो उनके नाम पर एक अर्थशास्त्र शोध संस्थान या बड़ा पुस्तकालय होना चाहिए।

उन प्रसिद्ध विशेषज्ञों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और सख्शियतों के नाम सार्वजनिक संस्थानों से जोड़े जाने चाहिए, जिन्होंने राष्ट्र की प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। लेकिन भारत में अक्सर इसके विपरीत ही होता रहा है। ऋषि कपूर ने एक बार सड़कों, हवाई अड्डों और संस्थानों के नाम राजनीतिक हस्तियों पर रखने के बेतुकेपन की आलोचना की थी। उन्होंने कला, विज्ञान, खेल आदि क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्तित्वों के नाम पर प्रमुख सड़कों के नाम रखने की वकालत की थी। दुर्भाग्य से, इस सुझाव पर अमल नहीं हुआ।

राजनीतिक हस्तक्षेप का एक स्पष्ट उदाहरण देश की सबसे पुरानी पार्टी है, जो एक परिवार के लोगों के नाम सरकारी योजनाओं और सार्वजनिक स्थलों से जोड़ती आई है। आंकड़े बताते हैं कि 449 सरकारी योजनाओं और 378 सड़कों व गलियों के नाम इस पार्टी के दो पूर्व प्रधानमंत्रियों के नाम पर रखे गए। इस अति-राजनीतिकरण से राष्ट्रीय संसाधन राजनीतिक प्रचार के टूल बन जाते हैं, जबकि विभिन्न क्षेत्रों की काबिल हस्तियों की पहचान समाप्त हो जाती है।

 

ऐसी मनमानी लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। सार्वजनिक संपत्तियां राष्ट्र की हैं, किसी राजनीतिक वंश की नहीं।किसी मेडिकल कॉलेज का नाम एक महान सर्जन के नाम पर या किसी एयरपोर्ट का नाम एक महान पायलट के नाम पर रखना उन क्षेत्रों में योगदान देने वाले व्यक्तियों के काम को बेहतर रूप से दर्शाएगा। यह समय है कि सार्वजनिक स्थलों के राजनीतिक दुरुपयोग की परंपरा को खत्म किया जाए। राष्ट्रीय संपत्तियों के नामकरण के लिए एक निष्पक्ष प्रणाली बनाने से योग्यता आधारित पहचान सुनिश्चित होगी, जिससे प्रेरणा और निष्पक्षता को बढ़ावा मिलेगा।

हवाई अड्डे, अस्पताल, शैक्षणिक संस्थान और सड़कें जनता के पैसे से बनाई जाती हैं। राष्ट्रीय संपत्तियां देश के नागरिकों की हैं। इसलिए किसी भी राजनीतिक दल या व्यक्ति को अपने नाम का इस्तेमाल व्यक्तिगत या राजनीतिक प्रचार के लिए करने की अनुमति नहीं होनी चाहिए। राजनीतिक नेता अस्थायी संरक्षक होते हैं, न कि सार्वजनिक संपत्तियों के मालिक। उनका कर्तव्य है कि वे जिम्मेदारी के साथ शासन करें, न कि राष्ट्रीय संसाधनों का उपयोग अपनी ब्रांडिंग के लिए करें।

सार्वजनिक स्थलों के नामकरण को नियंत्रित करने के लिए एक निष्पक्ष और पारदर्शी नीति होनी चाहिए, जो राजनीतिक पूर्वाग्रह से मुक्त हो। इस तंत्र में ऐसे मापदंड शामिल हो सकते हैं जैसे कि किसी व्यक्ति का समाज में योगदान, संबंधित क्षेत्र में प्रासंगिकता और सार्वजनिक सहमति। उदाहरण के लिए, किसी शैक्षणिक संस्थान का नाम किसी प्रतिष्ठित शिक्षक के नाम पर रखा जा सकता है, जबकि किसी शोध केंद्र को किसी अग्रणी वैज्ञानिक के नाम पर रखा जा सकता है। ऐसी प्रणाली सार्वजनिक स्थानों की पवित्रता को बनाए रखेगी और योग्यता तथा निष्पक्षता की संस्कृति को बढ़ावा देगी।

 

देश आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहां सार्वजनिक संसाधनों के राजनीतिकरण को समाप्त करना अत्यंत आवश्यक है। सार्वजनिक संस्थानों के नामकरण के लिए योग्यता-आधारित प्रणाली लागू करना न केवल सही व्यक्तियों का सम्मान करेगा, बल्कि अगली पीढ़ी को भी प्रेरित करेगा। राजनीतिक पक्षपात से वास्तविक पहचान की ओर ध्यान केंद्रित करके, राष्ट्र अधिक समान और लोकतांत्रिक समाज की ओर एक महत्वपूर्ण कदम उठा सकता है।

 

लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

ईमेल: newsroomvirtual@gmail.com

 

 

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