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जो बोया वही तो काटोगे …

बसंत पांडेय
इन दिनों जैसे किसान आंदोलन ने देश को खुर्द बुर्द करके जगा दिया है। कुलबुलाते विपक्षी दलों को भी जैसे लाईन में लगना आ गया है। सोशल मीडिया पर कमाल और धमाल मचा हुआ है। यू ट्यूब पर इतने वीडियो अपलोड किये जा रहे हैं कि अजनबी से दिखते वीडियो भी काम के लगते हैं। इन सबके बीच समय कम होता लग रहा है। पिछले हफ्ते इसी धमाचौकड़ी में एक जरूरी खबर का जिक्र करना रह गया। ‘न्यूज़ क्लिक’ वेबसाइट पर ईडी का छापा। भाषा सिंह ने गुस्से में मुझे याद दिलाया। चूक हुई हमसे। सच में। इन दिनों भाषा सिंह काफी सक्रिय हैं। कल उनका ताजा वीडियो स्पाट रिपोर्टिंग का था जिसमें किसान आंदोलन के प्रमुख सदस्य ईडी के छापे पर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया दे रहे थे। इस आंदोलन की यही खूबी और खूबसूरती है कि जैसे यह भरपूर तैयारी के साथ आया है, कि जैसे इसने सरकार के खिलाफ खुले सारे मोर्चों पर अपनी सहानुभूति के हस्ताक्षर दर्ज किये हैं, कि जैसे इसने सबसे पहले स्वयं को गांधी के रास्ते पर चलने की ठान कर मोदी सत्ता को अंग्रेजी हुकूमत के समकक्ष लाकर खड़ा करने का सफल रेखांकन किया है, कि जैसे इस आंदोलन ने पिछले छ सात साल के मोदी के चरित्र को बखूबी समझ कर अपनी धार पैनी की है और इसलिए मोदी सरकार को चौतरफा इस कदर घेरा है कि सरकार न केवल बौखलाहट की दहलीज पर आ खड़ी हुई है बल्कि उसके चहेते चैनल और मोदी सखा भी भीतर ही भीतर हैरान परेशान हैं। अपनी कहानी लिखते हुए यह आंदोलन इतना आगे बढ़ गया है कि विरोधी चाह कर भी बदनाम नहीं कर पा रहे। हिंसा का पुट सिरे से गायब है। इसीलिए कहिए आंदोलन की सफलता और किसान नेताओं की उसूलों में सोशल मीडिया चहक रहा है। इतना कि यू ट्यूब पर वीडियो की बाढ़ आ गयी है। ज्यादातर नये पुराने सब देखने वाले हो रहे हैं।
एक सिरे से हम बात करते हैं सभी की। ‘लाऊड इंडिया टीवी’ के संतोष भारतीय हर किसी की इन दिनों जरूरत बनते जा रहे हैं। उनके शायद दिन भर में दो कार्यक्रम आते हैं। जिस धीरज के साथ ‘देखन में छोटे लगें, घाव करें गम्भीर’ वे पब्लिक से खुद को कनैक्ट करते हैं उसकी तारीफ हो रही है। लंबे वीडियो पर स्वयं वे चौकन्ने हैं। इसलिए उन्होंने स्वयं ही अवधि कम की है, अच्छा किया है। जज्बाती तरीके से उनका संवाद और जानकारियां देना लोगों को भा रहा है। इधर देखने में आया है कि जबसे पुण्य प्रसून वाजपेयी ने आंकड़ों और अपने तथाकथित ‘सचों’ को छोड़कर ‘टू द प्वाइंट’ विषय पर चर्चा की है तो वे भी बहुत बेहतर तरीके से लोगों को बांध पा रहे हैं। स्वयं मैंने उनका आरएसएस की भूमि (नागपुर) और कल ‘रेल रोको आंदोलन’ वाला वीडियो मन से सुना। अच्छा लगा। कनैक्टिविटी पहली शर्त है। वरना आप बोलते जाएं और आदमी के दिमाग में उसकी खिचड़ी बनती जाए, कोई लाभ नहीं है। वाजपेयी इसी तरह आगे भी अपने ‘सचों’ को किनारे कर दुरुस्त टिप्पणी और विश्लेषण करें तो वे भी सामान्य लोगों की आदत बन जाएंगे। और थोड़ा धीरे धीरे संम्भल सम्भल कर।
पिछले हफ्ते भाषा सिंह ने भीमा कोरे गांव प्रकरण में बंद लोगों के वकील मिहिर देसाई से बेहद सारगर्भित बातचीत की। भाषा सिंह में भले भाषा और प्रस्तुति का वैसा प्रवाह न हो पर उनकी लगन और ईमानदारी देखने वाली है। उन्होनें एक और बेहतरीन काम किया। कवि मंगलेश डबराल की यादों को संजोया। मंगलेश की पत्नी, बेटी, अजय सिंह और पंकज बिष्ट से भाषा ने मंगलेश की यादों के लमहों को ताजा किया। भाषा इसी क्षेत्र में आगे बढ़ें और ढेर सारे कवि लेखक जो पिछले और हाल के बरसों में चले गये हैं उनकी यादें समेटें। जैसा कभी राज्यसभा चैनल पर राजेश बादल का कार्यक्रम आया करता था – ‘उनका शहर उनकी नजर’ और बाद में ‘विरासत’ नाम से। मंगलेश डबराल पर भाषा की प्रस्तुति बहुत लाजवाब रही।
ओम थानवी ने अजीत अंजुम को रिपोर्टिंग का ‘नायक’ करार दे दिया है। अजीत अंजुम ने किसान आंदोलन से पहले प्रवासी मजदूरों की भी रिपोर्टिंग की थी। किसी कोने में पड़ी बेचैन आत्माएं जब कुछ कारगर कर जाती हैं तो वह नायकत्व पा जाती हैं।
आरफा खानम शेरवानी के कार्यक्रमों की मुझे तलाश रहती है। इस बार उन्होंने ‘टूलकिट’ पर प्रिया पिल्लै और डीजीपी अस्थाना से बात की। दोनों का नजरिया एकदम साफ और गम्भीर था। आरफा से यही उम्मीद है कि कि वे अपनी गरिमा के अनुसार उन चुनिंदा और गम्भीर लोगों से जनता का वास्ता कराएं जिसे सुन कर महसूस हो हमने पाया ही पाया है। इस समय ‘वायर’ शीर्ष पर होने के साथ साथ सत्ता की आंख की किरकिरी भी बना हुआ है। इसीलिए हमें हैरानी तब हुई जब ‘वायर’ को छोड ईडी ने ‘न्यूज़ क्लिक’ पर छापा मारा। हालांकि सिद्धार्थ वरदराजन पर दो तीन बार सत्ता के हमले हो चुके हैं। फर्जी रिपोर्ट और मुकदमों के सिलसिले में।
‘सत्य हिंदी’ पर रोजाना आशुतोष और आलोक जोशी की चर्चाएं आ रही हैं। उनका पैनल भी फिक्स है। एकाध चेहरे अदल बदल होते हैं। इसलिए सुनें न सुनें बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन सुनेंगे तो कुछ बिगड़ेगा भी नहीं और कुछ जाएगा भी नहीं।बल्कि कुछ मिलेगा ही। चटपटी होती हैं बातें। आलोक जोशी का विवेचन जरूर सुना कीजिए। हट कर और बड़ा सारगर्भित होता है। शीतल पी सिंह में ईमानदारी और गम्भीरता मिलेगी। उर्मिलेश जी ने कल ‘टूलकिट’ पर अपनी बात कही। उर्मिलेश जी से एक आग्रह है यदि वे अन्यथा न लें। वे अपना कोई भी कार्यक्रम बनाते समय यह अवश्य ध्यान रखें ये सारी बातें सब जगह आ चुकी हैं। इन्हीं बातों को कैसे इस कदर रखा जाए या उनमें कुछ अलग से नया पन डाला जाए कि ताजगी लगे। अब उन्होंने एक नया शब्द दिया – ‘टीवीपुरम’। कोई अर्थ नहीं है इसका। कुछ सम्प्रेषित नहीं करता। गोदी मीडिया या दरबारी चैनल तो इतने स्पष्ट हैं कि उनमें कोई विवाद ही नहीं पर ‘टीवीपुरम’ का क्या मतलब हुआ। यह शब्द लोकप्रिय हो ही नहीं सकता। मोदी के दरबार में या मोदी की गोदी में बैठे चैनल। एकदम साफ है सब कुछ। खैर हमें उर्मिलेश जी से रिक्वेस्ट करनी थी, सो की। आजकल उनके वीडियो भी आने बंद हो गये हैं मेरे पास। बाकी सबके ही आ रहे हैं यहां तक कि अपूर्वानंद के लेखों के लिंक भी बराबर मिल रहे हैं। शायद उर्मिलेश जी नाराज हों। होता है, हो जाता है।
भाई विनोद दुआ भी एक जरूरत बन पड़े हैं। पर ‘बहरहाल’ शब्द उनके होठों पर पागलपन की हद तक चस्पां हुआ है। उन्हें कौन बताए। संतोष भारतीय उनके परम मित्र हैं वे इशारा कर सकते हैं।
अंत में राजा रवीश। जिस दिन एनडीटीवी के प्राइम टाइम पर रवीश नहीं होते सब सूना सूना लगता है।यह लोगों की रिपोर्ट है। यह तो डरावना है भाई। यह तो संबल के पकड़े रहने और छूट जाने जैसा है। तो यानि रवीश न हुए तो हवा को लकवा मार जाएगा। क्या कहें सही भी है और कुछ गलत भी। पर अच्छा है सोशल मीडिया स्पेस घेर रहा है। आखिर दो दिन रवीश नहीं भी होते हैं। तो उस न होने की भी आदत लोगों को राहत देती है। सोमवार से फिर वही जुनून। रवीश से उम्मीदों की डोर बड़ी मजबूत हो चली है। ऊंचाईयों अक्सर बड़ी खतरनाक हुआ करती हैं। रवीश समझते होंगे।
सरकार के ये गर्दिश के दिन हैं। मोदी ने ऐसा भयावह स्वप्न तो कभी नहीं देखा होगा। पर उन्होंने सब कुछ को अपने गुरूर में इतना हल्का कर डाला कि जैसे वे झूठ बोलते जाएंगे और लोग भूलते जाएंगे। ऐसा नहीं होता। वे मुसलमानों और दलितों की हत्याओं पर मौन साध कर लोगों में शंका के बीज बोएंगे और लोग भूलते जाएंगे। ऐसा नहीं होता। सच तो यह है कि मोदी ने इन छ – सात सालों में जनता का भरोसा खोया है। किसान आंदोलन ने इन्हीं चीजों को बखूबी समझा है और आंदोलन उन्हें यह भी चेता रहा है कि मोदी जी जो बोया है वही तो काटोगे। नफरत की सत्ता इशारा कर रही है कि देश रसातल में जा रहा है। और मोदी जी के पास केवल और केवल नौसीखियापन है। तो डूबना तो जाहिर है। इंतज़ार बस समय का है।

बसंत पांडेय

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