साहित्य

नदलेस की पत्रिका सोच पर परिचर्चा गोष्ठी का आयोजन

दिल्ली। नव दलित लेखक संघ की पत्रिका सोच के प्रथम अंक पर ऑनलाइन परिचर्चा गोष्ठी रखी गई। सोच के इस अंक का संपादन डा. अमित धर्मसिंह ने किया। परिचर्चा गोष्ठी अपेक्षा से अधिक सफल और सार्थक रही। कारण कि परिचर्चा गोष्ठी निर्धारित समय से दो घंटे अधिक चली। वक्ताओं ने जमकर विचार रखे। वक्ताओं में पंजाब से सरुप सियालवी और डा. नविला सत्यादास, दिल्ली से कर्मशील भारती और डा. कुसुम वियोगी, महाराष्ट्र से दामोदर मोरे और राजस्थान से रत्नकुमार सांभरिया जी जुड़े, जिन्होंने सोच पर हर दृष्टि से सारगर्भित विचार अभिव्यक्त किए। सभी वक्ताओं ने संपादक डा. अमित धर्मसिंह के संपादकीय कौशल के साथ-साथ सोच में प्रकाशित सभी रचनाकारों की रचनाओं का पर्याप्त संज्ञान लिया। खासतौर से रत्नकुमार सांभरिया, अनिल बिडलान, सतीश खनगवाल, राजेश पाल और नंदलाल की कहानी; आर जी कुरील, पुष्पा विवेक, शीलबोधि, ईश कुमार गंगानिया, भूपसिंह भारती, बजरंग बिहारी और दीपक मेवाती के लेख; समय सिंह जोल, राजेश कुमार बौद्ध और कुसुम वियोगी की कविता तथा दो दलित लेखक संघों के विभाजन से जुड़े प्रस्ताव पत्र पर खुलकर विचार व्यक्त किए। गोष्ठी की अध्यक्षता डा. अनिल कुमार ने की और संचालन डा. अमिता मेहरोलिया ने किया। उपस्थित रचनाकारों में अखिलेश कुमार, सोमी सैन, डा. गीता कृष्णांगी, आर. पी. सोनकर, मनोरमा गौतम, बी एल तोंदवाल, कुमारी अनिता, जय कौशल, रजनी दिसोदिया, खन्नाप्रसाद अमीन, आर. सी. यादव, चितरंजन गोप लुकाटी, बंशीधर नाहरवाल, बिभाष कुमार, मदनलाल राज़, मामचंद सागर, अमित रामपुरी, डा. हरकेश कुमार, रवि प्रकाश और सतीश खनगवाल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। सभी वक्ताओं और श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन सोच के संपादक डा. अमित धर्मसिंह ने किया।
सर्वप्रथम सरुप सियालवी ने सोच पर अपने विचार रखे। उन्होंने दलित साहित्य और समाज की ऐतिहासिक परम्परा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि नदलेस द्वारा सोच का संपादन और प्रकाशन करना रचनात्मक रूप से लाभकारी है। इसमें जो रचना सामग्री संकलित की गई है, वह हर दृष्टि से उपयोगी है। इसके लिए संपादक बधाई के पात्र हैं। कर्मशील भारती ने कहा कि संगठन बनाने भर से कुछ नहीं होता, क्योंकि संगठन अपने काम से पहचाने जाते हैं। नदलेस ने यह काम कर दिखाया कि आज उसकी उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। मुझे खुशी है कि अमित धर्मसिंह ने पूरी जिम्मेदारी से इस कार्य को बखूबी अंजाम दिया है। डा. नविला सत्यादास ने पत्रकारिता परम्परा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह बहुत ही उत्कृष्ट दर्जे का संपादन हुआ है। खासतौर से इसमें जो आधी आबादी के साहित्य को जगह दी गई है, वह काबिले तारीफ है, क्योंकि बगैर उनको सहयोग दिए, हमारा समाज आगे नहीं जा सकता है। दामोदर मोरे ने सोच के श्लोगन ‘कल से कल तक के लिए’ के विषय में कहा कि सोच निश्चित ही हमें अतीत, वर्तमान और भविष्य के विषय में सोचने पर मजबूर करती है। उन्होंने सोच में दर्ज काव्य सोपान का संज्ञान लेते हुए कहा है सभी कवियों की कविताओं में अंबेडकर की विचारधारा अंतर्निहित है, हमें कविताओं में बौद्ध दर्शन का भी पर्याप्त समावेश करना होगा। उन्होंने पत्रिका के सौंदर्य, आकार प्रकार और गठन सबकी भूरी भूरी प्रसंशा करते हुए नदलेस और संपादक दोनों को बधाई दी। यद्यपि, डा कुसुम वियोगी ने पत्रिका के कवर पेज से आंबेडकरी विचारधारा के पता न चलने की बात कही। साथ ही सोच में संकलित सामग्री के चयन पर भी सवाल खड़े किए। उन्होंने बजरंग बिहारी के लेख का ज्ञान लेते हुए कहा कि अंक में रचना संकलन करते हुए संपादक को विशेष ध्यान रखना चाहिए था।
रत्नकुमार सांभरिया ने कुसुम वियोगी से पूरी तरह असहमत होते हुए कहा कि ऐसा नहीं कि सोच में स्तरीय सामग्री संकलित नहीं की गई। रचनाओं को रचनाकार के फेस से नहीं बल्कि उसके कंटेंट से परखना चाहिए। रही बात संपादकीय कौशल की तो सोच में संकलित नदलेस सोपान को देखिए कितनी गंभीरता और सलीके से कार्य किया गया है। पत्रिका को इतने भी हल्के में नहीं लिया जा सकता है। प्रथम अंक होने के बावजूद सोच का यह अंक हर दृष्टि से महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है। अध्यक्षता कर रहे डा. अनिल कुमार ने कहा कि जाने अनजाने हमसे और नदलेस से यह बहुत बड़ा काम हो गया है। इस कार्य में डा. अमित धर्मसिंह मुख्य सूत्रधार रहे हैं, क्योंकि गत वर्ष अमित जी ने ही हम सबका आह्वान किया था। हमने भी सोचा कि जब अपना भाई कुछ करना चाहता है तो हमें उसके साथ लगना चाहिए। हम उसके साथ लगे और आज रिजल्ट हम सबके सामने है। इसके अलावा सभी वक्ताओं ने सोच के प्रथम अंक पर जो विचार व्यक्त किए, वे सभी सार्थक और विचारणीय हैं। आगे और भी बेहतर कार्य करने का प्रयास किया जाएगा। अंत में संपादक डा. अमित धर्मसिंह ने सभी वक्ताओं और श्रोताओं का धन्यवाद ज्ञापन के क्रम में कहा कि पत्रिका के मुद्रण पृष्ठ पर बाकायदा दर्ज किया गया है कि पत्रिका पूरी तरह बुद्ध, फुले और अंबेडकर के चिंतन और दर्शन से प्रेरित है। इसमें उन्हीं की विचाधाराओं से जुड़ी सामग्री स्वीकृत की जाती है, इसलिए ऐसा कहना कि पत्रिका या पत्रिका का मुख पृष्ठ अपनी विचारधारा को स्पष्ट नहीं करता, गलत है। सामग्री के संकलन के विषय में यह बात विचार करने की है कि दलित समाज में अभी तक भी कितने प्रबुद्ध रचनाकार हैं जो सशक्त रचनाकर्म करने में सक्षम हैं? केवल उनके भरोसे पत्रिका का संपादन नहीं किया जा सकता है। इसलिए वही सामग्री संकलित करनी पड़ेगी जो दलित समाज के बड़े तबके द्वारा लिखी पढ़ी जा रही है। रही बात उनके परिष्करण की तो यह प्रक्रिया बहुत धीमी होती है जो समयानुसार अपनाई जाती है और अपनाई जाती रहेगी। इसी उम्मीद और विश्वास के साथ संपादक डा. अमित धर्मसिंह ने सभी वक्ताओं और उपस्थित रचनाकारों का आभार जताया।

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