बचपन में ही बदलें लड़कों की मानसिकता…

सीसीटीवी, निर्भया गाइडलाइंस और विभिन्न कानूनों जैसे उपाय तब तक अप्रभावी रहेंगे जब तक लड़कों को छोटी उम्र से ही महिलाओं को सम्मान देना और सही-गलत के बीच अंतर करना नहीं सिखाया जाता।
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अनेक कानूनों के बावजूद, भारत में लड़कियों की सुरक्षा चिंता का विषय बनी हुई है। भले ही कुछ क्षेत्रों में सुधार हुए हैं, लेकिन स्थिति जटिल है और चुनौतियां बनी हुई हैं, जिससे सुरक्षा एक गंभीर मुद्दा बन गया है। बलात्कार, छेड़छाड़ और यौन उत्पीड़न सहित नाबालिगों के खिलाफ यौन हिंसा चिंताजनक रूप से बढ़ चुकी है। समाजिक भय और कानूनी अधिकारों की जानकारी न होने के कारण कई मामले उजागर ही नहीं हो पाते हैं। भारत में बदलापुर जैसी बाल शोषण की घटनाएं, नाबालिगों, विशेष रूप से बच्चियों की सुरक्षा के बारे में मौजूदा चिंताओं को उजागर करती हैं।
पिछले दिनों बदलापुर में, केजी में पढ़ने वाली तीन व चार साल की दो बच्चियों के साथ एक व्यक्ति द्वारा छेड़छाड़ की गई। इस घटना से अभिभावकों और स्थानीय लोगों में आक्रोश फैल गया, जिसके चलते विरोध प्रदर्शन हुए, जिसमें रेलवे ट्रैक की 10 घंटे की नाकाबंदी भी शामिल थी। आरोपी को गिरफ्तार करके न्यायिक हिरासत में भेजा गया। इसके बाद, महाराष्ट्र सरकार ने कई उपाय शुरू किए, जिसके तहत स्कूल स्टाफ और पुलिस अधिकारियों को निलंबित किया गया और एक विशेष जांच दल गठित किया गया। बच्चों को ऐसे जघन्य कृत्यों से बचाने के लिए स्कूलों में सख्त सुरक्षा प्रोटोकॉल की मांग भी उठी है।
बॉम्बे उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने इस बात पर जोर दिया है कि कम उम्र से ही मानसिकता में बुनियादी बदलाव जरूरी है, जिसके अभाव में सिर्फ कानूनी अंकुश काफी नहीं है। बदलापुर मामले में, न्यायाधीशों ने कहा कि पुरुष वर्चस्व और प्रभुत्व जैसे सामाजिक मुद्दे सार्वजनिक चेतना में मौजूद हैं। बच्चों को घर व स्कूलों में समानता के बारे में शिक्षित करना महत्वपूर्ण है। सीसीटीवी, निर्भया गाइडलाइंस और विभिन्न कानूनी उपायों के बावजूद, मौजूदा उपाय तब तक अप्रभावी रहेंगे जब तक कि लड़कों को छोटी उम्र से ही महिलाओं के प्रति सम्मान और सही और गलत के बीच अंतर के बारे में नहीं सिखाया जाता। बच्चों में ऐसे संस्कार प्रीस्कूल में ही डालना शुरू हो जाना चाहिए।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉस्को) अधिनियम 2012 बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों के लिए सजा का प्रावधान करता है। हालांकि, इस कानून की प्रभावशीलता अक्सर न्याय में देरी, खराब कार्यप्रणाली और पीड़िता को ही दोषी ठहराने के रवैये से बाधित होती है। यौन शोषण, जबरन श्रम और घरेलू दासता जैसे मकसद से अक्सर बच्चियों की तस्करी की जाती है। ऐसे तस्कर प्राय: आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों की बच्चियों को निशाना बनाते हैं। ऐसी बच्चियों को बचाने के प्रयास तो होते हैं, लेकिन पुनर्वास प्रक्रिया आमतौर पर अपर्याप्त होती है, जिससे कई पीड़ितों को फिर से समाज में शामिल होने में मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
कई नाबालिग लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है। स्कूलों को भले ही सुरक्षित स्थान माना जाता है, लेकिन शैक्षणिक संस्थानों में उत्पीड़न और दुर्व्यवहार की घटनाएं भी सामने आती रहती हैं। ग्रामीण और कमजोर समुदायों की नाबालिग लड़कियां, अक्सर कुपोषण से पीड़ित होती हैं, जिससे उनका शारीरिक व मानसिक विकास प्रभावित होता है। इंटरनेट और स्मार्टफोन के बढ़ते चलन के साथ, नाबालिग लड़कियों को साइबरबुलिंग और ऑनलाइन उत्पीड़न जैसे जोखिमों का सामना करना पड़ता है। ऐसा डिजिटल साक्षरता की कमी से होता है। नाबालिग लड़कियों और उनके अभिभावकों के लिए डिजिटल सुरक्षा संबंधी शिक्षा की बहुत ज़रूरत है। साथ ही ऑनलाइन कंटेंट और सोशल मीडिया पर निगरानी की भी आवश्यकता है।
लेखक दिल्ली में वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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