तुम बिखेर देना मुझे…!

सुनो…!
झूठ कहते हैं लोग की तुम कम बोलते हो,
मैंने तुम्हारे लिखें शब्दों की पुकार को सुना है!
देखा है तुम्हारी उत्तेजनाओं को,
देखा है तुम्हारे उत्साह को,
देखा है तुम्हारे हौसलें को,
जो अकसर मुझे बुलंदियों पर देखने की चाह लिए होता था..!
देखा है तुम्हारी कल्पनाओं को,
जिनमें मैं एक सशक्त महिला के रूप में जन्मी..!
मेरा जन्म सिर्फ मेरे लिए नहीं रचा तुमनें,
जानती हूं..!
तुम बिखेर देना चाहते हो,
मेरे साहस को,
मेरी लगन को,
मेरी शक्ति को,
मेरी हर कामयाबी को
उन तमाम कम साहस वाली लड़कियों में,
उन कपकपाती-सहमी महिलाओं में जिनमें शक्ति और साहस तो अपार है लेकिन हिम्मत जुटाने से कतराती हैं अकसर..!
लो तुम्हें मैं देती हूं, वो अधिकार की तुम बिखेर देना मेरे साहस को उन तमाम कम साहस वाली स्त्रियों में..!
तुम बिखेर देना मेरी निडरता उन सहमी महिलाओं पर जो अपनी लड़ाई पूरी करने से अकसर डर जाती हैं..!
तुम बिखेर देना मेरे हृदय की थोड़ी कठोरता, जिसने कभी मुझे अपनी हत्या नहीं करनी दी..!
तुम बिखेर देना मेरे जुनून को उन महिलाओं में जो सोचती हैं की शादी उनके जीवन का अंतिम पड़ाव है..!
तुम बिखेर देना मेरे मजबूत सपनों को उन महिलाओं की आंखों में जो सपने देखना छोड़ चुकी हैं..!
तुम बिखेर देना मेरे उन अहसासों को जिनमें हर-पल कोई नई क्रांति जन्म लेती है..!
तुम बिखेर देना मेरे शब्दों को उन तमाम महिलाओं में जिन्हें वक़्त ने गूंगा बना दिया है..!
क्योंकि मैं अपनी ज़िन्दगी के
कामयाबी के हर लम्हें को बिखेर देना चाहती हूं ताकि उनपर फिर निर्माण हो सके किसी सशक्त नारी का…
जैसे मेरा हुआ था..!!
डॉ. नाज़ परवीन