धर्म

खत्म हो रही है जगाने की मजबूत ‘रिवायत’

सहरी का वक्त है उठो, अल्लाह के लिए अपनी मगफिरत के लिए

लियाकत मंसूरी
मेरठ। माह-ए-रमजान में ‘उठो सोने वाले सहरी का वक्त हैं, उठो अल्लाह के लिए अपनी मगफिरत के लिए’…जैसे अल्फाजो के साथ लोगों को सहरी के लिए जगाने वाले फेरी वालों की सदाएं वक्त के साथ बेनूर हो चली है। समाजी दस्तूर के साथ ये रिवायतें अब मद्धिम पड़ती जा रही है। पुरानी तहजीब की पहचान मानी-जानी वाली सहरी में जगाने की यह परंपरा दिलों और हाथों की तंगी की वजह से दम तोड़ती नजर आ रही है। फेरी आपसी संबंधों को मजबूत करता एक समाजी बंधन है, लेकिन सामाजिक बिखराव के साथ इसकी गांठें ढीली पड़ती जा रही हैं।
कारी शफीकुर्रहमान ने फेरी की परंपरा के बारे में बताया, पहले के जमाने में खासकर फकीर बिरादरी के लोग सेहरी के लिए जगाने जैसे बड़े सवाब के काम को बेहद मुस्तैदी और ईमानदारी से करते थे। बदले में उन्हें ईद में इनाम और बख्शीश मिलती थी। इसमें अमीर द्वारा गरीब की मदद का जज्बा भी छुपा रहता था। इस तरह फेरी की रिवायत हमारे समाज के ताने-बाने को मजबूत करती थी, लेकिन अब मोबाइल फोन, अलार्म घड़ी और लाउडस्पीकर ने फेरी की परंपरा को जहनी तौर पर खत्म सा कर दिया हैं। उन्होंने बताया, तंगदिली और तंगदस्ती, हाथ तंग होना भी फेरी की रिवायत को कमजोर करने की बहुत बड़ी वजह है। पहले लोग फेरी वालों के रूप में गरीबों की खुले दिल से मदद करते थे, लेकिन अब वह दरियादिली नहीं रही।
रस्मी रूप तक सीमित रह गई परम्परा-


कारी की इस बात को एडवोकेट आजम जमीर की टिप्पणी भी सही साबित करती है। वह कहते हैं कि सहरी के लिए लोगों को जगाने का सिलसिला पिछले पांच-छह साल में कम होने के साथ-साथ कुछ खास इलाकों तक सीमित हुआ है। इसका आर्थिक कारण भी है। जमीर कहते हैं कि रमजान में फेरीवाले लोग अब सम्पन्न शहरों में जाने को तरजीह देते हैं। इससे उन्हें ईद में अच्छी-खासी बख्शीश मिलती है, जो अब छोटे शहरों और गांवों में मुमकिन नहीं है। उन्होंने कहा कि सच्चाई यह है कि अब फेरी की परंपरा सिर्फ रस्मी रूप तक सीमित रह गई है। लोग अब सेहरी के लिए उठने के वास्ते अलार्म घड़ी का इस्तेमाल करते हैं और अब तो मोबाइल फोन के रूप में अलार्म हर हाथ में पहुंच चुका है, लेकिन यह रमजान की बरकत और अल्लाह का करम ही है कि सहरी के लिए जगाने की रिवायत सीमित ही सही, लेकिन अभी जिंदा है।
एकजुटता और हमदर्दी से सींची गई रिवायत है फेरी-


हाजी इमरान सिद्दीकी इस परंपरा के कमजोर पड़ने को समाजी लिहाज से गहरी फिक्र का सबब मानते हैं। उनका कहना है कि मुस्लिम कौम एकजुटता और परस्पर हमदर्दी की बुनियाद पर फलीफूली है, अगर ये चीजें खत्म होंगी तो वह अपना नूर खो देगी। फेरी एकजुटता और हमदर्दी से सींची गई रिवायत है और इसका कमजोर होना मुस्लिम कौम के कमजोर होने की निशानी है।
एक सामाजिक बंधन है फेरी-


काजी शादाब ने बताया कि पुराने जमाने में सम्पन्न लोग कमजोर तबके के लोगों की अच्छे अंदाज से खिदमत करते थे और फेरी के बदले बख्शीश भी इसी का हिस्सा हुआ करती थी। अमीर लोग इन फेरी वालों के त्यौहार की जरूरतें पूरी कर देते थे, मगर अब वह फिक्र धीरे-धीरे गायब हो रही है। उन्होंने बताया कि फेरीवाले लोग मजहबी लिहाज से खुशी और सवाब के लिए भी यह काम करते हैं। फेरी एक सामाजिक बंधन है। फेरी के जरिए न सिर्फ लोगों को जगाने का काम किया जाता था, बल्कि इसके जरिए लोग एक-दूसरे की खैर-खबर भी रखते थे, जो एक मजबूत समाज के लिए बहुत जरूरी है।

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