साहित्य

अब तू बड़ी हो गयी है…

 

अक्सर घर से बाहर
कदम निकालते ही
सहम कर…
रोक लेती है मां
बेटी अब तू बडी हो गयी है
बहुत बुरी है दुनियां
बचपन की बात और थी
तू अब सुरक्षित नही है वहां..
मै अवाक..
हां मां..सुरक्षित नही मै बाहर.
पर मां क्या सुरक्षित रही मै
सदैव घर के भीतर..
छत से लेकर स्टोर..
गैलरी से बाल्कनी
क्या सुरक्षित रही मै हर पल..
हां अब बड़ी हो गयी हूं
पर क्या सुरक्षित थी तब
मात्र छह वर्ष की थी जब..
मेरे तथाकथित मामा की
लाई वो गुलाबी फ्राक
जो दी थी उन्होंने मुझे
छत पर ले जाकर
जब भी पहनाती थी न तुम …
महसूस करती थी
कुछ.. गंदा सा.. कुछ रेंगता सा..
अपने तन पर..
मां याद है अब भी मुझे
पापा के वो दोस्त ..
जिनकी “लाडली” थी मै…
बाल्कनी में उनका
मुझे टाफियां खिलाना
दे गया हमेशा के लिए …
एक घिन टाफियों से…
मै तो आठ साल की थी मां…
तो क्या सुरक्षित थी मां..
स्कूल जाते वक्त..
रिक्शा में बैठाते हुए
पड़ोस वाले भैया के हाथ
अक्सर डरा  देते मुझे…
तुम्हें रिश्तों के नाम पर इन
रिवायतों का भान न था
मुझे सही गलत का ज्ञान न था
पर तूने सच कहा मां…
अब मै बडी हो गयी हूं …
समझ चुकी हूं फर्क
भले और बुरे का …
सही और गलत का
अब सीख चुकी हूं…
ना कहना ….
नमस्ते वाले हाथो से …
गले का नाप लेना …
अब मै सुरक्षित हू मां …
घर के भीतर भी…
और बाहर भी …
मुझे नापने दे
अपने हिस्से का आसमान मां ..
सीख चुकी हूं करना
अपने अस्तित्व की रक्षा
घर के आंगन से बाहर तक..
अपने व्यक्तित्व का निर्माण..
धरती से आसमान तक.
अब मै बड़ी हो गयी हूं मां…..


Sonia singh

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