मौत की आग़ोश में नींद गहरी थी लगी, दम कहाँ किसी बंदूक की बारूद में

मौत की आग़ोश में नींद गहरी थी लगी,
दम कहाँ किसी बंदूक की बारूद में
जो गांधी को मिटा सकें कभी।
जिंदगी का मौत को
एक छलावा था फ़कत
तुमको मिटाने के लिए,
जन्म हो चुका था फिर
लहू की हर एक बूंद से,
जब पुकारा था तुमनें जोर से
‘हे राम!’
मेरे कातिल को अब
भीड़ से बचाईये,
मृत्यु से आगाज था
अंजाम बाकी है अभी,
देह समर्पित हुआ अग्नि को
गगन पर नाम बाकी है अभी।
तुम नज़र आते हो अब भी
किसानों की अहिंसक हुंकार में,
डगमगा जाती है सत्ता
तुम्हारी एक पुकार में।
तुम नज़र आते हो अब भी
छात्रों के अहिंसक सैलाब में,
सहन कर लेते हैं जब वो
नंगी पीठ सौ सौ लाठियां।
तुम नज़र आते हो अब भी
महिलाओं के इंकलाब में,
झेल जाती हैं जब वो तानाशाहों की
जहर सी कड़वी बोलियाँ।
तुम नज़र आते हो अकसर
विरोध की अहिंसक आवाज में,
मौत की आग़ोश में नींद गहरी थी लगी,
दम कहाँ किसी बंदूक की बारूद में
जो गांधी को मिटा सकें कभी।।
Dr. Naaz Parween