गांवों कस्बों छोटे शहरों से, कुछ मोड़ महानगरों को जाते हैं… दिवास्वप्नों का दिखा आकर्षण, खींच युवाओं कोई ले जाते हैं…

गांवों कस्बों छोटे शहरों से
कुछ मोड़ महानगरों को जाते हैं…
दिवास्वप्नों का दिखा आकर्षण
खींच युवाओं कोई ले जाते हैं…
निकल वो मां के आंचल से
छूट पिता के अनुशासन से
हो विरत खुले आसमान से
अंधेरे दरबों में रम जाते हैं…
बड़े लाड़ से पालन करते
स्वप्न अनेक सजाते हैं
उज्जवल भविष्य हेतु मां बाप
बच्चों को शहर भिजवाते है
खुद आधी रोटी खाकर सोते
बच्चों को कमी न होने देते
वो नौनिहाल नयी संस्कृति में
जाकर गुम हो जाते हैं…
कोई होता भावी आर्यभट्ट
कोई कलाम हो सकता था
कोई सरोजनी , महादेवी
कोई टैगोर बन सकता था
भूल ये अपनी ही गुणवत्ता
छलावो में फंस जाते हैं
कितने मेधावी विवेकानंद
बनने से पहले ही मिट जाते है…
नहीं जरूरी ब्याह रहा अब
क्यों बंधन हो बेमतलब का
सारी सुविधाएं दे गया जब
सौदा लिव इन रिलेशन का
कैसे संभव एक के संग ही
सारा जीवन ढोते जाना
परिवर्तनशील प्रकृति में इस
मौसम से साथी बदले जाते है…
नहीं चाहते संतान भी वो
जिम्मेदारी क्यों ले भारी
श्वान पालते एक विदेशी
ममता उसपर बरसाते हैं
कभी झुलाते बाहों में
कभी घुमाते राहों में
बेझिझक बिस्तर पर भी
संग अपने उसे सुलाते हैं….
अति स्वतंत्रता की भूख ये जाने
किस गर्त में लेकर जाएगी
संवेदना संस्कार संस्कृति से
विलग संसार नया बनाएगी
मां बाप की सीखें भी लगती
अब अतिक्रमण अधिकारो का
समझाते आखिर एक दिन
वो भी थककर चुप हो जाते है….
युवाशक्ति का ह्वास अगर
ये यूं ही होता जाएगा
समाज अपने मानव मूल्यों को
प्रतिदिन खोता जाएगा
बड़ी भयावह स्थिति होगी
होगा बड़ा दुखांत परिणाम
विविध भांति के नशे में डूबे ये
जीवन को धुंए में उड़ाए जाते हैं….
थामना होगा बढ़कर आगे
बहकते इनके कदमों को
रोकना होगा सीमाओं के
नित होते अतिक्रमणों को
कर्तव्य त्याग मर्यादा के
भावों को दृढ़ आयाम दे
जैसे खरपतवार हटाकर
बिरवे मजबूत बनाए जाते हैं….
सोनिया सिंह
(बांदा)