राजनीति

छोटे चौधरी का नही हो पाया सपना पूरा, वेस्ट यूपी में अलग चीफ मिनिस्टर की थी चाहत

True स्टोरी
रालोद सुप्रीमो चौधरी अजित सिंह इस दुनिया को अलविदा कहकर चले गये। लेकिन उनका एक सपना अधूरा रह गया। मन में एक कसक भी रह गई थी। वे हमेशा यह चाहते थे कि वैस्ट यूपी ‘हरित प्रदेश’ के नाम से जाना व पहचाना जाये। यहां का अलग चीफ मिनिस्टर हो। वैस्ट के लोग जो टैक्स देते है उसको पूरब के लोग प्रयोग करते हैं। अगर प्रदेश अलग होगा तो विकास होगा। जिनसे उत्तराखंड अलग बनने से वहां विकास हुआ। ऐसे हालात में उनका यह सपना अधूरा ही रह गया। हालांकि अब हरित प्रदेश रालोद के एजेंडे में नहीं था। वे 2019 में आखिरी चुनाव मुजफ्फरनगर से लडे थे। हारने के बाद वे कई गांवो में आभार प्रकट करने आये थे। कहा था कि हार जीत तो होती रहती है। वे तो आभार जताने आये हैं। जीवन रहा तो गपशप लडाते रहेगे।
बता दे कि देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के निधन के बाद वर्ष 1980 में सत्ता पर जैसे ही चौधरी
अजित सिंह की आमद हुई तो वैस्ट यूपी के लोगों ने उन्हें छोटे चौधरी के रूप में अपने दिल में खूब जगह दी। उनके एक फैसले को लाखों लोगों का समर्थन मिलता था। सात बार लोकसभा सदस्य रहे। वर्ष 1986 में राज्य सभा सदस्य के तौर पर चौधरी अजित सिंह ने संसद में प्रवेश किया। 1987 में उन्होंने पहला बड़ा फैसला लिया था। जब उन्होंने लोकदल अजित के नाम से एक नया संगठन बनाया। उनके इस फैसले के बाद पार्टी का जनाधर बढा और कई दलो का विलय हुआ। जिसका नाम जनता पार्टी रखा गया और अजित सिंह को जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। इसके बाद जनता पार्टी, लोकदल और जनमोर्चा के विलय के साथ जनता दल का गठन हुआ, तब चौधरी अजित सिंह इसके राष्ट्रीय महासचिव चुने गये। विश्वनाथ प्रताप सिंह नीत सरकार में उन्हें केन्द्रीय उद्योग मंत्री की हैसियत से काम करने का मौका मिला। 1999 में राष्ट्रीय लोकदल का गठन किया। 1998 में अजित सिंह को बागपत से हार मिली थी। तब भाजपा नेता सोमपाल शास्त्री ने उन्हें हरा दिया था। जुलाई 2001 के आम चुनाव में रालोद ने एनडीए में विलय कर लिया था। मनमोहन कैबिनेट में वे कृषि मंत्री रहे। मुलायम सिंह यादव प्रदेश में सत्ता में आये तो अजित सिंह ने 2007 तक उन्हें अपना समर्थन दिया। लेकिन किसान नीतियों पर मतभेद होते ही यह समर्थन वापस भी ले लिया था। 2014 में बागपत से अजित सिंह को दोबारा हार मिली तो उन्होंने वर्ष 2019 में मुजफ्फरनगर से चुनाव लडा था। तब उन्होंने कहा था कि वे मुजफ्फरनगर चुनाव जीतने नहीं बल्कि साम्प्रदायिक ताकतो को दफन करने आये हैं। बहुत कम अंतर से उन्हें यहां हार मिली थी। यह बात अलग है कि विजयी प्रत्याशी भाजपा के संजीव बालियान का जीत का अंतर लाखो से घटकर इस बार चंद हजार में रह गया था। यहां यह भी बताना मुनासिब होगा कि मुजफ्फरनगर में वर्ष 2013 में हुए दंगे के दौरान जाट व मुस्लिम समाज के बीच जो खाई बनी थी। उस खाई को भी छोटे चौधरी
ने ही किसी हद तक पाटने का काम किया था। उन्हें वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में जो वोट मिला था उसमें 95 प्रतिशत मत मुस्लिम समाज का था। साफ था कि मुस्लिमों ने छोटे चौधरी को जमकर पंसद किया और उन्हें अपना शत प्रतिशत वोट देकर जता दिया था कि वे रालोद को पंसद कर रहे हैं। उन्होंने मुजफ्फरनगर में हुए दंगे का दर्द पूरी तरह से भुला दिया था। यहां तक की दंगा प्रभावित क्षेत्रों में भी मुस्लिमों ने छोटे चौधरी को खूब पंसद किया था।

हमेशा पछताएगी मुजफ्फरनगर की धरती-

वर्ष 1971 का वह चुनाव जिसमें तत्कालीन PM चौधरी चरण सिंह की कयादत वाले बीकेडी ने सभी विधानसभा सीटो पर जीत हासिल की हो, लेकिन इस चुनाव में लोकसभा प्रत्याशी के रूप में छोटे चौधरी को हार मिली थी। पूर्व सभासद एवं हिन्दी परिषद के जिलाध्यक्ष गजेन्द्र पाल बताते है कि चौधरी अजित सिंह के निधन के बाद मुजफ्फरनगर की धरती को एक बडा पछतावा रहेगा। 1971 के बाद 2019 के चुनाव में भी चौधरी अजित सिंह को यहां से हारना पड़ा। जिले के कई प्रभावी नेता चौधरी अजित सिंह को यहां बड़ी आस के साथ लाये थे। कारण कुछ भी रहा हो, लेकिन पछतावा जरूर है। बागपत की जमीन ने जिस तरह इस परिवार को सम्मान दिया। लेकिन यहां की धरती उसे एक बार भी न बचा पाई। गजेन्द्र पाल कहते है कि छोटे चौधरी हमेशा इसी बात को लेकर तनाव में रहते थे कि मुजफ्फरनगर में उनके अपनो से उन्हें वफ़ा नही मिली।

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