साहित्य
मसरूफियात…
मेरे कुछ अपने मुझसे अक्सर
मेरी मसरूफियात का सबब पूछते हैं,
तंग आकर मेरी बेरूख़ी से वो
नाराज़गी ज़ाहिर करने के लक़ब ढूंढते हैं
फुर्सत के लम्हो की कमी जब हो
लम्बे क़िस्से भी मुख़्तसर बन जाते हैं,
न चाहते हुए भी सब बातो के जवाब
बस ‘हम्म’ और ‘अच्छा’ में बदल जाते हैंं।
जिम्मेदारियो के बोझ तले दबकर
ज़िन्दगी बस एक नुक़्ते पर अटक जाती है,
उलझ जाते हैं जब किसी मोड पर
बेफिक्र दिनो की याद बहुत सताती है।
मशविरा-ए-अलक़मा है उन दोस्तों को
जो शिकायतो की फहरिस्त बनाएं बैठै हैं
आपके तआवुन के तलबगार है इस मोड पर वो
जो फर्ज की ख़ातिर अपनो को भुलाए बैठे हैं।।
अलकमा मुशर्रफ़