मोटे अनाज में छिपा है स्वास्थ्य का राज

डॉ. OP चौधरी
पुरानी कहावत है कि साल में एक दिन घूरे(जहां गोवंशों का गोबर और खर – पतवार इकट्ठा कर कम्पोस्ट बनाया जाता है)का भी आता है। इस भौतिकवादी और आधुनिक काल में यह कहावत चरितार्थ हो रही है।जी हां हम बात कर रहे हैं पुराने समय में बोए और खाए जाने वाले अनाजों की।मौका था साईं समसपुर (जलालपुर,अम्बेडकरनगर )में हमारे शुभचिंतक और एक मात्र शेष बचे हम लोगों के पित्ती(चाचा) श्री राम लौटन वर्मा के घर, हाल- चाल के बाद बातचीत चल पड़ी खेती – किसानी,गांव – गिराव की,खान – पान की, रहन – सहन की।फिर बात होती गई और वे लोग अपने बचपन और हम अपने बचपन की खेती किसानी आदि के बारे में चर्चा करने लगे।
जब सांवा,कोदो,मेडूआ,बाजरा, ज्वार, बोड़ा, मटर, चना, तीसी/अलसी, राई, जौ,खेसारी,केराव आदि बड़े पैमाने पर बोए जाते थे।हम लोग उस कालखंड के आखिरी गवाह हैं, ऐसा प्रतीत होता है,क्योंकि कुछ नवयुवक भी वहां मौजूद थे, लेकिन वे अधिकतर अनाजों से अनभिज्ञ थे।हमने सोचा कि जो हम लोगों के बचपन में फसलें उगाई जाती थी और लोग उनका सेवन करते थे और बिना दवा के फिट रहते थे, क्यों न उसके बारे में बात चीत की जाय। जिन्हें मोटा अनाज कहा जाता है,वे स्वास्थ्य की दृष्टि से कितने उपयोगी थे,आज लोगों को समझ में आ रहा है ।अब सरकार भी इन फसलों को संरक्षित व संवर्धित करने का प्रयास कर रही है।जिस सावाँ और जौ को लोग बहुतायत मात्रा में पैदा करते थे आज वह सावाँ ,कोदो, जौ ढूढे नहीं मिल रहा है। भाई मेवालाल जी, मुस्कान ज्योति समिति, लखनऊ जो बर्मी कम्पोस्ट,जैविक खेती के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिए हैं,और पूरे देश में घूम – घूम कर एक जन आंदोलन का रूप दे रहे हैं।एक दिन बताने लगे कि यार ओ पी हम तो सावाँ का चावल उड़ीसा से मंगवाते हैं और उसका सेवन कर रहे हैं, बहुत ही सुपाच्य है।मुझे स्वयं ही लारी कार्डियोलॉजी, लखनऊ में इलाज के दौरान डायटिशियन द्वारा फ्लेक्सी सीड के सेवन का सुझाव दिया गया तो आश्चर्य हुआ कि तीसी/अलसी तो अब बोई नहीं जाती, तिरस्कृत है, उसका सेवन?लेकिन अब मैं कर रहा हूं। जौ,कोदो,मडुआ पेट के लिये काफी फायदे मन्द होता था ।आज भी उत्तराखंड,मध्य प्रदेश, झारखंड,उड़ीसा में यह बोया जाता है ।बाजरा (सफेद और लाल),मक्का बोए जाते थे।मक्के के खेत ,फूट वाली ककड़ी बो दी जाती थी।ककड़ी जब पककर फूटती थी उसे फूट कहा जाता था जिसे गुड़ (राब)से खाते थे,जो अब केवल अस्ताबाद जगदेव बाबू की कुटी पर ही खाने को मिलती है lउसे खाने में कितना मजा आता था,उसका वर्णन करना बड़ा मुश्किल है ।एक ही खेत में एक साथ 3-3 फसलें उगाई जाती थी।अरहर के खेत में उसके साथ ही तिल,मूँग,उड़द,सनई, पेटुवा बो दिया जाता था।सनई और पेटुआ से सन निकलता था, जिससे कुएं से पानी निकालने की उबहन,चरखी चलाने के लिए बरहा, बरारी, पशुओं को बांधने के लिए पगहा, गेरॉव, नाथी, सिंघौटी बनाई जाती थी और भी तरह – तरह की रस्सी और चारपाई के लिए बाध और ओरदवन बनता था।सनई के फूल का साग बड़ा ही स्वादिष्ट और पौष्टिक व्यंजन था, इन फसलों के साथ आयरन से भरपूर बथुआ फ्री में मिल जाता था,हांडी में चना, सरसों, बथुआ के साग की गमक अब याद ही बन गई है।तीसी से मीठी बेझरी/बेरनी(अब राम खुशियाल बाबू की पत्नी ही हमारे पूरे गांव में बना पाती हैं) गजब का व्यंजन बनता था, जितना स्वादिष्ट उतना ही फायदेमंद।अब यही फ्लेक्सी सीड और रागी के रूप में वरिष्ठ आहार विशेषज्ञों द्वारा संस्तुत किया जा रहा है, फिर दशकों से उपेक्षित पड़े इन मोटे अनाजों की ओर हमारा दृष्टिकोण परिवर्तित हुआ।कुछ लोग अरहर के साथ ही बाजरा और उड़द भी बो देते थे। जाड़े के दिनों में बाजरे की रोटी, देशी घी और गुड़ के साथ, मक्के की रोटी सरसों के साग साथ लोग खाते थे और ठंड से बचाव करते थे, क्योंकि तब इतने साधन उपलब्ध नहीं थे ओढ़ने और बिछाने के।भेडियहवा कम्बल और पुइयरा की गोनरी ही काफी थे।एक खेत में एक साथ कितनी फसल तैयार हो जाती थी।यह सब जून में बोई जाती थी।बाजरे का तना जानवरों के लिये चारा का काम करता था।तिल का तेल सिर दर्द में काफी लाभदायक होता है।दीपक भी जलाया जाता था, मिट्टी के दीये में, उस सुगंध का वर्णन चंदी बाबू ही कर सकते हैं।
बरसात होते ही खेतों की हल – बैल से खूब गहरी जुताई कर दी जाती थी और मेडबंदी कर दी जाती थी।जब जोर की बारिश होती थी तो लेवा करके धान कि बुवाई कर दी जाती थी।उस समय बाईसनगीना बड़े पैमाने पर बोए जाता था, उसका चावल अच्छा होता था। बगड़ी, सरया, करहनी, जहां पानी ज्यादा लगता था वहां जड़हन बोया जाता था।इसका चावल लाल होता था,प्रायः लाई बनाने के काम आता था।इसका भात मीठा होता था। सरया और सहदेइया उस समय के जीरा बत्तीस थे।पैदावार कम होती थी।कहीं कहीं करंगा और सेलहा धान बोया जाता था उसमें तुड़ बड़ा बड़ा होता था।अब तो धान कि रोपाई होने लगी आई आर ऐट धान ने पैदावार बढ़ा दी, मंसूरी भी अच्छी पैदावार देता है, बासमती व बंगाल जूही की पैदावार तो कम है लेकिन खाने में स्वाद अच्छा है।हाइब्रिड की इतनी किस्में प्रचलित हैं, जिनका नाम गिनाना कठिन है।गेहूं नरमारोजू, के अडसठ खूब चला पहले अब बहुत सी किस्में हैं।पहले जौ, चना, मटर,सरसों,तीसी आदि बड़े पैमाने पर बोए जाते थे।जौ अब लगभग गायब ही हो गया है।जौ जब से गायब हो गया,और गेहूं आ गया लोग केवल गेहूं के पिसान का प्रयोग करने लगे,तबसे पेट की बीमारी बढ़ गई है।उस समय चरखी,बेनी, पुरवट,,ढेकुली,रहट,सैर, से सिंचाई होती थी। जो इन फसलों की सिंचाई के लिये पर्याप्त थे।कुएं,तालाब,पोखरी,गड़ही आदि थे जो जलाशय का और जल संरक्षण का कार्य करते थे।
अब हमें पुन: इन्हीं मोटे अनाजों की जरूरत है, रासायनिक खादों, कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खेती की ओर अग्रसर होने की जरूरत है,निजामपुर, परुइया आश्रम के विजय वर्मा जी, जो राजकीय इंटर कॉलेज,बाराबंकी में भूगोल प्रवक्ता भी हैं, जैविक खेती कर समाज को एक नई सोच/दिशा प्रदान कर रहे हैं,ताकि सभी को पौष्टिक व शुद्ध आहार मिल सके।हम उनको साधुवाद देते हैं कि पूरे समाज को एक नई दिशा एवं विषाक्त मुक्त खाद्यान्न उपलब्ध करा रहे हैं। इसमें सरकार का सहयोग बहुत आवश्यक है।
डॉ. ओ पी चौधरी
एसोसिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष,मनोविज्ञान विभाग,
श्री अग्रसेन कन्या पी जी कॉलेज वाराणसी
मो: 9415694678
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