कभी तुमने नदी को समेटते बाँध को देखा है? आखिर कैसे सहन कर लेती है इतना कुछ!
डॉ. नाज़ परवीन
1.कभी तुमने नदी को
समेटते बाँध को देखा है?
आखिर कैसे सहन
कर लेती है इतना कुछ?
कितना आसान होता है
चट्टानों के लिए
नदी के उमड़ते प्रवाह को रोक देना
और कितना दर्दमय होता होगा
नदी के लिए चुप चाप
अपने उफनते भावों को
हृदय में समाहित कर लेना
सहज निश्चलता से
बिल्कुल तुम्हारी तरह….!
2.ये दीपक में
लौ देती “बाती”
कितनी निष्ठुर
प्रतीत होती है
एक एक करके अपने
समीप आते
सभी पतिंगों को
भस्म कर देती है,
क्या वास्तव में ये इतनी कठोर है?
या अपने प्रेम को मरते देख
पथरा सी गयी है?
ऐसा प्रतीत होता है जैसे
इसके नैन जिनमें
पानी नहीं अब
प्रकाश निकलता है
निरंतर उन्हें दूर जाने का
आदेश दे रहे हो..!
3.आह! मौन का कोलाहल
कितना शक्तिशाली होता है,
जैसे पपीहे की
व्याकुलता को सुन मेघ
झमाझम वर्षा
उड़ेल देते हैं चारों ओर,
वर्षा में नृत्य करते
विशाल वृक्ष
कौन से संगीत में
झूम उठते हैं?
भीगे हुए पंछी
किस धुन को सुन
निकल आते हैं अपने घोसलों से
प्रकृति के ताल में
ताल मिलाने
आखिर कौन जाने?